दिल्ली के महरौली में है मुगल काल की आखिरी इमारत 'जफर महल', जानिए पूरी कहानी

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दिल्ली के महरौली में है मुगल काल की आखिरी इमारत 'जफर महल', जानिए पूरी कहानी

दिल्ली के महरौली में है मुगल काल की आखिरी इमारत 'जफर महल


Haryana khabar : देश की राजधानी दिल्ली अपने साथ न जाने कितना इतिहास समेटे हुए है। अफगान आक्रांता मोहम्मद गोरी और 1526 की पानीपत की लड़ाई के बाद मुगल शासक बाबर, दिल्ली के तख्त को पाने के लिए संघर्ष भी खूब हुए। पूरे भारत पर हुकूमत करने के लिए दिल्ली को ही सबसे बेहतर जगह मानी गई। इस दौरान लाल किला, कुतुब मीनार, हुमायूं का मकबरा आदि ऐतिहासिक इमारतें बनाई गईं। आज भी इन्हें देखने लोग दूर-दूर से आते हैं। मुगल काल के बाद अंग्रेजों के 200 साल के शासन में भी इन इमारतों की पूछ रही। ऐसा ही एक महल है जो मुगल काल के दौरान बना था। दिल्ली के महरौली में बना यह महल अब गुमनामी के अंधेरे में है। नाम है जफर महल। इस समय पूरा घास से भरा हुआ है। दीवारें जीर्ण-शीर्ण हालत में हैं। जफर महल महरौली में सूफी संत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह के ठीक बगल में बना हुआ है। यह ऐतिहासिक इमारत एक शक्तिशाली राजवंश के गौरव के अंतिम वर्षों की कहानी बताता है। आइए इतिहास के पन्नों को पलटते हैं और इसकी कहानी जानने की कोशिश करते हैं।


कब हुआ निर्माण, क्या है कहानी?
जफर महल को शुरू से जानने के लिए आपको आज से 500 साल पहले 18वीं शताब्दी में जाना होगा। उस वक्त मुगल सम्राट अकबर शाह द्वितीय ने इस महल का निर्माण कराया था। यह मुगल शासकों की ओर से बनवाई गई अंतिम धरोहर थी। इंडियन एक्सप्रेस के हवाले से लेखक-फिल्म निर्माता सोहेल हाशमी इस महल के बारे में तफ्तीश से बताते हैं। उन्होंने बताया कि अकबर शाह द्वितीय के पुत्र मिर्जा जहांगीर को उस समय के ब्रिटिश रेजिडेंट पर हमला करने के जुर्म में दो साल के लिए इलाहाबाद किले में कैद कर लिया गया था। रिहा होने पर, उनकी मां ने अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए शाहजहानाबाद से महरौली दरगाह तक नंगे पैर चलने का फैसला किया। दिल्ली के फूल बेचने वालों को यह बिलकुल भी नहीं पसंद आया कि एक मुगल रानी इतना दर्द सहन करे। उन्होंने मिर्जा जहांगीर की मां को आसानी से चलने के लिए पूरे रास्ते को फूलों से ढकने का फैसला किया। फूल बेचने वालों की इस मदद को देखने के बाद उनके सम्मान में 'फूलवालों की सैर' नाम से मेाला आयोजित होने लगा। जल्द ही यह एक सप्ताह तक चलने वाला मेला एक वार्षिक आयोजन बन गया। इस मेले के दौरान, पूरा दरबार महरौली में स्थानांतरित हो जाता था। तब अकबर शाह द्वितीय ने यहां इस महल का निर्माण करने का फैसला किया था।

 

 

जफर महल का एंट्री गेट

 


कब नाम पड़ा जफर महल?
इसके बाद अगली सदी में चलते हैं। इससे पहले महल को कोई नाम नहीं दिया गया था। इसके नामकरण का अगली सदी में हुआ, जब अकबर शाह के उत्तराधिकारी बहादुर शाह जफर द्वितीय आए। उन्होंने पहले महल तक जाने वाले एक भव्य द्वार का निर्माण करवाया। जल्द ही, महल को जफर महल कहा जाने लगा। सोहेल हाशमी के अनुसार, जफर महल को समावेशी परंपरा का प्रतीक कहना गलत नहीं होगा। उन्होंने आगे बताया कि जब रानी सूफी संत की दरगाह की ओर जा रही थीं, तब फूल विक्रेताओं ने उनसे योगमाया मंदिर में भी दर्शन करने का अनुरोध किया था। इस बात को रानी ने मान लिया था।

लेखक और इतिहासकार राणा सफवी ने इंडियन एक्सप्रेस के हवाले से जफर महल के इतिहास के बारे में और प्रकाश डाला है। सफवी ने कहा कि जफर महल का इतिहास 'फूलवालों की सैर' और उसके साथ होने वाले समारोहों की समन्वित संस्कृति से समृद्ध है। 13 सालों से जफर महल पर हेरिटेज वॉक आयोजित कर रहे महरौली के एक लंबे समय के निवासी आसिफ खान देहलवी के अनुसार, यह स्मारक विभिन्न शताब्दियों की संरचनाओं का भी घर है, जिनमें मुगल साम्राज्य से पहले की संरचनाएं भी शामिल हैं।



इस महल में क्या-क्या है जान लीजिए


इंडियन एक्सप्रेस में छपे इस महल के बारे में देहलवी ने जफर महल को थोड़ा और तफ्सील से बताया। उन्होंने महल में क्या-क्या है इसकी डिटेल दी है। उन्होंने कहा कि यहां दिल्ली सल्तनत काल का एक मकबरा है। फिर मुगल काल की संरचनाएं हैं जैसे हाथी पोल (हाथियों के लिए द्वार), दालान और खंभे। आप यहां एक चिमनी भी देख सकते हैं, जो स्पष्ट रूप से ब्रिटिश प्रभाव का प्रतीक है। दहलवी ने कहा कि मुझे इस जगह को संरचनाओं के एक गठरी (बंडल) कहना पसंद है। दहलवी ने आगे बताया कि यह दरगाह से निकटता ही बताती है कि क्यों परिसर में कई कब्रें हैं, जिनमें से कई मुगल राजाओं की हैं, जिनमें अकबर शाह द्वितीय भी शामिल हैं। हाशमी कहते हैं, 'यदि आप ध्यान दें, तो अधिकांश राजाओं ने आदरणीय सूफी संतों के बगल में दफनाए जाना पसंद किया। इसका एक उदाहरण हुमायूं का मकबरा है, जो निजामुद्दीन दरगाह के पास स्थित है। जफर महल कोई अपवाद नहीं है और इसलिए, आपको यहां मुगल राजघराने के सदस्यों की सभी कब्रें मिलती हैं।'

देहलवी कहते हैं, 'जैसे ही आप परिसर के अंदर जाते-जाते हैं, मस्जिद के ठीक पहले, आपको तीन कब्रों वाला एक संलग्न स्थान दिखाई देगा। दूसरी कब्र और तीसरी कब्र के बीच एक स्पष्ट जगह है। यह वह जगह है जहाँ अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर अपने पिता की कब्र के ठीक बगल में दफनाए जाना चाहते थे। लेकिन ऐसा होना तय नहीं था।' 1857 की क्रांति के बाद, ज़फर को अंग्रेजों ने रंगून (अब यांगून) म्यांमार में निर्वासित कर दिया था। इस तथ्य से अवगत कि उनकी अंतिम इच्छा अधूरी रह जाएगी, कवि-सम्राट ने अपनी लाचारी को एक शेर में समेट लिया जो आज तक उनका सबसे प्रसिद्ध शेर है।

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